Antim Aalap | Prachi

अंतिम आलाप | प्राची

कितना और समेटूँ ख़ुद को!

ख़ुद की सूनी-वंचित बाँहों में
धूप का छुआ मेरा रंग

कपड़ों के इस पार तक ही है
तुम्हारे छूने की लालसा

अंतस को कचोटती
अँधेरे में सकुचाती

और सर्वस्व त्याग देने को खड़ी—
ध्यान-मुद्रा में

पेड़ो-पहाड़ो-जानवरो-बच्चो,
कोई तो मेरी देह अपने तक खींच लो,

ख़ुद के भार से मैं धँसती जा रही हूँ
अंतिम आलाप का आख़िरी सुर

जहाँ न पहुँचे
वहीं कहीं छुपी बैठी हूँ।

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