Apradh | Leeladhar Jagudi
अपराध | लीलाधर जगूड़ी
जहाँ-जहाँ पर्वतों के माथे थोड़ा चौड़े हो गए हैं
वहीं-वहीं बैठेंगे फूल उगने तक
एक-दूसरे की हथेलियाँ गर्माएँगे
दिग्विजय की ख़ुशी में मन फटने तक
देह का कहाँ तक करें बँटवारा
आजकल की घास पर घोड़े सो गए हैं
मृत्यु को जन्म देकर ईश्वर अपराधी है
इतनी ज़ोरों से जिएँ हम दोनों
कि ईश्वर के अँधेरे को क्षमा कर सकें।