Baarish | Nemichandra Jain

बारिश - नेमिचंद्र जैन

बारिश सुबह हुई थी 
जब फुहारों से नहाए थे पेड़ 
घर-द्वार 
बच्चे 
लोगों के मन 
और अब शाम को 
पश्चिम में रंगों का मेला भरा है 
लाल और सुनहरे की कितनी रंगते हैं 
ऊदे-साँवले बादलों को लपेटे 
कमरे में उमस के बावजूद 
बाहर हवा में सरसराहट है 
तरावट भरी 
छतों पर बच्चे नौजवान 
और अधेड़ भी 
पतंगें उड़ा रहे हैं 
चारों तरफ़ 
किलकारियाँ, खिलखिलाहट, भाग-दौड़ 
पतंगें कटने या काटने की सनसनी है 
तमाम परेशानियों, दुश्चिंताओं को 
मुँह चिढ़ाती उत्तेजना है 
ज़िंदगी की 
कोई शर्मीली लड़की 
एक छत की मुँडेर से टिक कर 
खड़ी है 
किसी ख़याल में खोई हुई 
शायद हवा में डगमगाती 
उठती-गिरती-नाचती पतंगों में 
अपनी ज़िंदगी की 
कोई तस्वीर देखती 
या आसमान के रंगों में 
कोई अनलिखी इबारत बाँचती 
पहचानती 
यह पल 
कितना ख़ुशनुमा, सुहावना 
सुनहरी संभावनाओं से भरपूर है 
अपने आप में संपूर्ण, सार्थक 
अविस्मरणीय 
भले ही थोड़ी देर में 
रंगों का मेला उठ जाएगा 
बच्चे, नौजवान, अधेड़ 
शायद कमरों में जाकर 
दूरदर्शन पर चित्रहार देखने लगेंगे 
शर्मीली लड़की रसोई में लौटकर 
बढ़ती हुई महँगाई से खीझी 
सब्ज़ी काटती माँ से 
डाँट खाएगी 
और जीवन फिर अपने पुराने ढर्रे पर चल पड़ेगा। 

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