Kaka Se | Ashok Vajpeyi

काका से | अशोक वाजपेयी | अशोक वाजपेयी

अब जब हमारे बीच कुछ और नहीं बचा है
थोड़े से दु:ख और पछतावे के सिवाय
और हम भूल चुके हैं तुम्हारे गुस्से और विफलताओं को
मेरे बारे में तुम्हारी आशंकाओं को,
हम देख सकते हैं कि जीवन में आभिजात्य तो आ जाता है,
गरिमा आती है बड़ी मुश्किल से
जीवन गरिमा देने में बहुत कंजूस है
हम दोनों को ऐसी गरिमा पा सकने का उबालता रहा है।
कोई भी अपमान फिर वह देवताओं ने किया हो
या दुष्टों ने हम भूल नहीं पाए
जबकि जीने की झंझट में ऐसा भूलना
स्वाभाविक और ज़रूरी होता
हमें विफलता के बजाय अपमान क्यों
अधिक स्मरणीय लगा
ये हो सकता है एक पारिवारिक दोष हो
एक किसान बेटे के स्वाभिमान का
एक छोटे शहर के कल की आत्मवंचना का
तुम्हें गये पैंतीस बरस हो गए
और मैं तुम्हारी उमर से कहीं ज्यादा
उमर का होकर, अभी बूढ़ा रहा हूँ
तुम्हारे पास मुझे समझने की फ़ुरसत नहीं थी
और मैं तुम्हें रखने में हमेशा ढील रहा
अब जब हमारे बीच थोड़ा-सा दु:ख और पक्षतावा भर
बचा है, कुछ पथारे को तुम देख पाते
तो तुम्हें लगता, मैंने अपनी जिद पर अड़े रह कर
और अपमान को न भूल कर तुम्हें ही दोहराया है
असली दु:ख ये नहीं है कि इतने बरस नासमझी में गुज़र गए
बल्कि ये अंतत: मैं तुम्हारी फीकी आवृति हूँ
इसकी तुम्हें या मुझे कभी कोई आशंका या इच्छा नहीं।

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