Kukurmutta Prem | Kanishka

कुकुरमुत्ता प्रेम | कनिष्का 

गोले के जिस डायामीटर में हम पैदा हुए
वहाँ से शुरू हुई कथाएँ तालू से फुली और दंत के बीच फस गई
ऐसी दंत कथाए ओंघराए हैं मेरे तुम्हारे घर आँगन में
शब्दों की नसबंदी में
प्रेम कुकुरमुत्ता है
कही भी उग आता है
संसार की माँ ने अपने मैल से जन्मा इस कवक को
जो अपनारजक है संसार
पर लगे तरकारी और झोर के दाग से सने कपड़ों पर
धर्म के सरिए में सुरंग बना
पंथी लोक को छोड़ते हुए
कुकुरमुत्ता प्रेम ढूँढ़ लेता है मरते हुए लोगों को
नौवारी साड़ी की दुल्हन के लेस से छुड़ाए गए कुकुरमुत्ते
बरतन धोते धोते साबून बन गए
उन्हें लाल रंग के समीप रखा
उनसे महावारी
आलता
सिंदूर
के यहाँ वहाँ पड़े छीटों को साफ करने
या घरेलू हिंसा में गुंजल नसों से प्रवाहित खून धोने में लगाया
कुकुरमुत्ता ज्यादातर वक्त अब
जिजीविषा
को घसने और हल्दी में ओंघराने में बिताता रहा
तो उसका निकाह पढ़ा गया पीले रंग के साथ
दुल्हिन पीला पहनती है कोहबर में
हल्दी लगती है देह में
दहेज की पीले रंग की अलमारी में बंद दुल्हिन
उस दिन हुए पिलिया से भी ज़्यादा पीली रही
उसे गर्म रखा जाता है सर्दियों में
ताकि जून तक आते आते पीली आग में झोंकी औरत
गर्मी के पीलेपन का शिकार मानी जाएँ
उसके शैवाल सीने पर उग आता है
ममता का आलाप
जो नहीं समझेगी
उस आदमी की नजर माँ के स्तन पर है
तो कटकटाते हुए
अपने ब्लाउज़ से निकालती बीड़ी
और कुछ छुट्टे में रेंगती गंदी नज़रें रख आती है मस्जिद के दानपात्र में
घर से निकलते ब्रा लेस औरत को ऐसे
घूरा जाता
जैसे शरीर के समस्त जीवाणु अपने
ब्रह्मांड की पराकाष्ठा पर ऊंघते हो एक तवायफ़ के जोगे में
गगनचुम्बी बादल सी लड़की
सूरज से रौशनी चुराती
थाली में उतरा चाँद पीती थी
वो आँसुओं से मुँह क्यों पोंछ रही
जानने वाला ही उसका सच्चा प्रेमी है
जो कुकुरमुत्ते वाला साग बना
रोटी बेलते बेलते बेलन बनते हाथ में
रख देता थोड़ा घी
उसे पिघलाने में
मर्दों के जूता पौलिश से
काली होती जा रही स्त्रियों को
मंदिर से उखाड़
खेतों में जोत दिया
या उन्हें बागबानी सिखाई ताकि वह मिट्टी से जुड़ी रहे
मिट्टी से गर्म रिश्ता मदद कर सके ज़िन्दा गाड़ने में हर दिन
घर साफ सुथरा रहे इसलिए मर्दों ने घर पर रोका
झाड़ू लगाते लगाते सीको में तब्दील होती औरतों को
पर अब लकड़ियाँ काटते-काटते कुल्हाड़ी
बनती औरतें सबसे खूबसूरत लगती है वो काटना जानती है
औरतों पर लिखी गालियाँ
बुरी नज़र
बुरा स्पर्श
और हम पर पड़ते नाजायज रंग
भूख के दिनों में दाल-चावल बनती रही औरत
और भूखे संसार को परोसती रही
कितना झूठ लिखा है
औरतों ने भूख को मार डाला
भूख घुसपैठिया था वह औरत के साथ चिता पर सोया तो
वो चरित्रहीन बन गई
भूखी औरत ईश्वर के घर प्रसाद खाती पकड़ी गई
उसकी दो जोड़ी आँखें पहिए के नीचे बनारस चल बसी
अपने प्रेमी की तलाश में
तुम बनना
पहले तत्व में आकाश
अगर टीन टप्पर रही तो वायु बनना
इस युग का वासुकी
तुम्हें सिर चढ़ा शर्म से जल समाधी ले सकता है
क्योंकि तुम औरत हो
टीन टप्पर को कनिष्ठ पर लाधे देवकी नंदन नहीं
कोई बहरूपिया परजीवी है
जो तुम्हारी नाभी में उगे फूल तोड़ देगा
टीन टप्पर से
अग्नि
बनो तो भस्म करना कुरीतियाँ और लांछन को
जल इस हद तक बनना कि तैरा जा सके सब की आँखों में
फिर तुम कितना भी धरती बनना चाहो
अंत में हमारी जैसी औरतों को ग्रहण ही कहा जाएगा
मैं सोचती हूँ
कुकुरमुत्ता उग आए तेरे समग्र बदन पर
ताकि कटी जीभ
जमा गले का विशुद्धी चक्र फैलकर सुदर्शन चक्र बन
कंठ से निकल उगल सके व्यथा का वृतांत
और काट दे
उन रास्तों पर बनी कस्टडी नाम की ईमारत का धड़ जो रोक रहे संतान से मिलने को
इंतजार कर रहा है अनहत चक्र तुम्हारा
तुम्हारी ज़बान पर
अपनी ज़बानें तिजोरी से निकाल
निकल जाएँगे औरतों के समर्थक
ज़बान अपने भीमकाय अवतार में
काट देगी अत्याचारियों के फन
चाट लेगी अपनी बहनों के दुख
और दांत बढ़कर चबा लेंगे पितृपक्षों
के नाजायज रीति को
जबान की लार एकत्रित कर
अपच कंधों और
घुटनों को उगल देगी
पच जाएगा पेट और पेटों के इतंजार तक
पैर
एडी
हाथ पानी बन जाएँगे
बच जाएगी प्राण शक्ति रीढ़ में
अब नहीं तोड़ सकेगा कोई औरत की रीढ़
क्योंकि रीढ़ पर कुकुरमुत्ता उग आया है

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