Marghat | Raghivir Sahay

मरघट | रघुवीर सहाय

शानदार मौत थी

इसलिए कि कोई न भीड़ थी
न था रोना-धोना

हम लोग एक बड़े ख़ाली खेत में गए
गाँव के सिमटने से बचा रह गया था जो

और एक हल्की-सी देह को फेंक आए
“कहाँ है मरघट?” जो पता दिया गया था

पूछता उसे चला रामजस स्कूल के पीछे
एक जगह दो लड़के बोले, “हाँ, रामजस?

वहीं हम पढ़ते हैं—मरघट वहीं पर है?”
—मुँह बाकर रह गया वह युवक—

यह तो पता ही न था!
फिर हम भटक गए

अंत में एक किसी से मिले
दोनों ने सुखमय आश्चर्य से पूछा—

''मरघट? मरघट? मैं वहीं जा रहा हूँ, चलिए''
यों रस्ता मिल गया।

दाह-संस्कार में बड़ी कार्रवाई थी
यह लाओ, वह लाओ, यहाँ धरो, वहाँ धरो,

सात मन लकड़ी, पुरानी, सूखी भारी
डब्बा-भर एक वही दारा सिंह वाला घी

तीन हवन सामग्री के पाकिट, बस ख़त्म।
जब चिता चुन गई नियम के अनुसार

संपुजन सुंदर था, शिल्प में रीतिमत
शव उससे ढक गया

तब मुखाग्नि दी गई तालियाँ बजी नहीं, कैमरे नहीं खड़के।
नीरव विनम्रता : सब जानते थे कि क्या कर्मकांड है

पर किसी पर कोई बंधन नहीं था सिवाय मौन रहने के
वह थी तिहत्तर की

ऐसे ही हम भी थे
उस उम्र के जहाँ हर पुरुष समवयस्क लगता है—

“यह यहाँ वालों का 'लोकप्रिय' मरघट है''
कोई हिंदी बोला

श्री तनखा ने कहा, “हम जहाँ रहते हैं ज़्यादातर लोग मियाँ-बीवी हैं,''
उम्र हो चली है, पूरी अवकाशप्राप्त लोगों की बस्ती है—

आज यह, कल वह, छह बरस में मैं इस मरघट में बीस बार आया हूँ।
इस तरह हमने उस बस्ती के इस निर्जन द्वीप का भूगोल पहचाना।

लौटकर नहाया, हल्का हुआ,
मानो बड़ा काम कर आया हूँ :

देह में फुर्ती, दिमाग़ में रोशनी—
यह क्या एक मौत का करिश्मा है।

मेरे स्वास्थ्य में सुधार?
कमला ने कहा, नहीं तुम पैदल चले थे,

भीतर से विह्वल हुए थे, उदास भी,
ठंड हो चली थी तब लाल-लाल लपटों को तापा था,

कुछ भारी लकड़ियाँ उठाई थीं
दस लोगों के साथ अनायास नम्र हो अपने जीवन की

निस्सारता जानी थी
तभी लग रहा है कि रक्तचाप ठीक है।”

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