Nat | Rajesh Joshi
नट | राजेश जोशी
दीमकें जगह-जगह से खा चुकी हैं तुम्हारे बाँसों को
दीमकें जगह-जगह से खा चुकी हैं तुम्हारे बाँसों को
भूख खा चुकी है तुम्हारा सारा बदन
क़दमों को साधकर चलते हो जिस रस्सी पर
इस छोर से उस छोर
टूट चुके हैं उसके रेशे, जर्जर हो चुकी है वो रस्सी
जब-जब शुरू करते हो तुम अपना खेल
कहीं बहुत क़रीब से आती है
यम के भैंसे के खुरों की आवाज़
कहीं बहुत पास सुनाई पड़ती हैं
उसके गले में लटकी घंटियाँ।
नट!
क्या कभी डर नहीं लगता तुम्हें?
आशंका से कभी काँपते नहीं क्या तुम्हारे पाँव?
सच कहते हो बाबू एकदम सच
पर ज़रा कहो तो-
युद्ध में बार-बार घाव पर घाव सहते
क्या कम जर्जर हुई है यह पृथ्वी? कीड़ों, मकोड़ों और चूहों ने क्या कम खाया है इस पृथ्वी को
पर कौन डरता है बाबू इस धरती पर चलते हुए?
क्या यहाँ कम साध कर चलना पड़ते हैं पाँव?
जीवन की जोत पर जब तक टिकी रहें आँखें
कौन डरता है यमराज के भैंसे से?
मैं इस जर्जर रस्सी पर नहीं बाबू भरोसे की डोर पर चलता हूँ दिन रात।