Neev Ki Int Ho Tum Didi | Uday Prakash

नींव की ईंट हो तुम दीदी | उदय प्रकाश

पीपल होतीं तुम 
पीपल, दीदी
पिछवाड़े का, तो
तुम्हारी ख़ूब घनी-हरी टहनियों में
हारिल हम
बसेरा लेते।
हारिल होते हैं हमारी तरह ही
घोंसले नहीं बनाते कहीं
बसते नहीं कभी
दूर पहाड़ों से आते हैं
दूर जंगलों को उड़ जाते हैं।
पीपल की छाँह
तुम्हारी तरह ही
ठंडी होती है दोपहर।
ढिबरी थीं दीदी तुम
हमारे बचपन की
अचार का तलछट तेल
अपनी कपास की बाती में सोखकर
जलती रहीं।
हमने सीखे थे पहले-पहल अक्षर
और अनुभवों से भरे किस्से 
तुम्हारी उजली साँस के स्पर्श में।
जलती रहीं तुम
तुम्हारा धुआँ सोखती रहीं
घर की गूँगी दीवारें
छप्पर के तिनके-तिनके
धुँधले होते गये
और तुम्हारी
थोड़ी-सी कठिन रोशनी में
हम बड़े होते रहे।
नदी होतीं, तो
हम मछलियाँ होकर
किसी चमकदार लहर की
उछाह में छुपते
कभी-कभी बूँदें लेते
सीपी बन
किनारों पर चमकते।
चट्टान थीं दीदी तुम
सालों पुरानी।
तुम्हारे भीतर के ठोस पत्थर में
जहाँ कोई सोता नहीं निझरता,
हमीं पैदा करते थे हलचल
हमीं उड़ाते थे पतंग।
चट्टान थीं तुम और
तुम्हारी चढ़ती उम्र के ठोस सन्नाटे में
हमीं थे छोटे-छोटे पक्षी 
उड़ते तुम्हारे भीतर
वहाँ झूले पड़े थे हमारी ख़ातिर 
गुड्डे रखे थे हमारी ख़ातिर 
मालदह पकता था हमारी ख़ातिर
हमारी गेंदें वहाँ
गुम हो गयी थीं।
दीदी, अब 
अपने दूसरे घर की 
नींव की ईंट हुईं तुम तो 
तुम्हारी नयी दुनिया में भी 
होंगी कहीं हमारी खोई हुई गेंदें 
होंगे कहीं हमारे पतंग और खिलौने
अब तो ढिबरी हुईं तुम
नये आँगन की
कोई और बचपन
चीन्हता होगा पहले-पहल अक्षर
सुनता होगा किस्से
और यों
दुनिया को समझता होगा।
हमारा क्या है, दिदिया री!
हारिल हैं हम तो
आएँगे बरस-दो बरस में कभी
दो-चार दिन
मेहमान-सा ठहरकर
फिर उड़ लेंगे कहीं और।
घोंसले नहीं बनाये हमने
बसे नहीं आज तक।
कठिन है 
हमारा जीवन भी 
तुम्हारी तरह ही।
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