Phagun | Anju Ranjan

फाल्गुन | अंजु रंजन

एक अलस दुपहरी में
उस दुपहरी को खोजती हूँ
कच्ची अमिया और सितुवाँ को 
पत्थर पर घिसती हूँ
मलमल के दुपट्टे से रिसते-पिघलते 
कच्चे चटपटे कचूमर को चखती हूँ 
कभी चटखारे लेकर 
आँखें मींचकर अमचूर चुराती हूँ 
उसी दुपहरी में पीले सरसों में छिपकर
कच्चे, कोमल चने और मटर खाना चाहती हूँ
सरसराती हवाओं में पकते गुड़ की
भीली की मीठी सुगंध को
साँस खींचकर ढूँढ़ती हूँ।
बसंत तो आ गया पर वे सौगातें कहाँ! 
इस अलस दुपहर में उन चीनों को खोजती हूँ
उस टेसू भरे फागुन में रंगना चाहती हूँ।
सौहार्द, ठहाके, गुलाल, भाँग, मालपुए,
गुजिया और पकवान वाली होली में डूबी 
अपने देश को इस दुपहरी 
बहुत याद करती हूँ।

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