Postcard | Ramdarash Mishra

पोस्टकार्ड | रामदरश मिश्र 
 
चिट्ठी तो मैं भी हूँ
 परंतु वह सभ्य क़ीमती लिफ़ाफ़ा नहीं
 जो अपने भीतर 
न जाने क्या-क्या छिपाये रहता है 
और उसे दुनिया की नज़रों से बचाकर 
छोड़ आता है किसी हाथ के एकांत में
 मैं तो खुला हुआ सस्ता-सा पोस्टकार्ड हूँ 
और ढोता रहता हूँ
 मोटी खुरदरी अँगुलियों के सुख-दुख 
जिन्हें यहाँ-वहाँ कोई भी बाँच सकता है
और स्पंदित होकर महसूस कर सकता है कि
अरे यह चिट्ठी तो उसी की है
लेटरबक्स में जब लिफ़ाफ़े 
एक-दूसरे से मुँह फेरे 
अपने में बन्द पड़े होते हैं 
तब हम पोस्टकार्ड एक-दूसरे से बतियाते रहते हैं
 आते-जाते रहते हैं एक-दूसरे में 
और हर एक को लगता है कि
 वह अकेला न रहकर चिट्ठियों का कारवाँ बन गया है।
 
Nayi Dhara Radio