Prithvi Ka Mangal Ho | Ashok Vajpeyi

पृथ्वी का मंगल हो | अशोक वाजपेयी

सुबह की ठंडी हवा में 
अपनी असंख्य हरी रंगतों में 
चमक-काँप रही हैं 
अनार-नींबू-नीम-सप्रपर्णी-शिरीष-बोगेनबेलिया-जवाकुसुम-सहजन की पत्तियाँ : 
धूप उनकी हरीतिमा पर निश्छल फिसल रही है : 
मैं सुनता हूँ उनकी समवेत प्रार्थना : 
पृथ्वी का मंगल हो! 

एक हरा वृंदगान है विलम्बित वसंत के उकसाए 
जिसमें तरह-तरह के नामहीन फूल 
स्वरों की तरह कोमल आघात कर रहे हैं : 
सब गा-गुनगुना-बजा रहे हैं 
स्वस्तिवाचन पृथ्वी के लिए। 

साइकिल पर एक लड़की लगातार चक्कर लगा रही है 
खिड़कियाँ-बालकनियाँ खुली हैं पर निर्जन 
एकांत एक नए निरभ्र नभ की तरह 
सब पर छाया हुआ है 
पर धीरे-धीरे बहुत धीमे बहुत धीरे 
एकांत भी गा रहा है पृथ्वी के लिए मंगलगान। 

घरों पर, दरवाज़ों पर 
कोई दस्तक नहीं देता— 
पड़ोस में कोई किसी को नहीं पुकारता 
अथाह मौन में सिर्फ़ हवा की तरह अदृश्य 
हल्के से धकियाता है हर दरवाज़े, हर खिड़की को 
मंगल आघात पृथ्वी का। 

इस समय यकायक बहुत सारी जगह है 
खुली और ख़ाली 
पर जगह नहीं है संग-साथ की, मेल-जोल की, 
बहस और शोर की, पर फिर भी 
जगह है : शब्द की, कविता की, मंगलवाचन की। 

हम इन्हीं शब्दों में, कविता के सूने गलियारे से 
पुकार रहे हैं, गा रहे हैं, 
सिसक रहे हैं 
पृथ्वी का मंगल हो, पृथ्वी पर मंगल हो। 

पृथ्वी ही दे सकती है 
हमें 
मंगल और अभय 
सारे प्राचीन आलोकों को संपुंजित कर 
नई वत्‍सल उज्ज्वलता 
हम पृथ्वी के आगे प्रणत हैं। 
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