Rohit Vemula Par Paanch Kavitayein | Priyadarshan

रोहित वेमुला पर पाँच कविताएँ / प्रियदर्शन 

सत्ताईस साल से मौत की तिल-तिल अदा की जा रही किस्तें
उसने एक बार चुकाने का फैसला किया
और एक लंबी छलाँग लगाकर चला गया
उस बेहद लंबी अंधी सुरंग के पार जो उसकी जिंदगी थी
उसकी लहू-लुहान पीठ पर सदियों से पड़ते कोड़ों के निशान थे
उसकी जुबान सिल दी गई थी
अपने जख्मी होठों से जिन शब्दों को
वह अपने मुक्ति के मंत्र की तरह बुदबुदाना चाहता था
उन्हें व्यर्थ बना दिया गया था
उसे दंडित किया गया क्योंकि उसने ऊपर उठने की कोशिश की
वह रामायण का शंबूक था, रोम का स्पार्टाकस
वह उन लाखों लाख गुमनाम गुलामों दासों और शूद्रों की साझा चीख था
जो पीटे गए, मारे गए, सूली पर चढ़ा दिए गए
जिनके कानों में सीसा डाला गया, जिनकी आँख निकाल ली गई
जिनके शव सड़ने के लिए छोड़ दिए गए सड़कों पर
वो हमारी आत्मा में चुभता हुआ भारत था
जिसे खत्म किया जाना जरूरी था
इतिहास की ताकतें चुपके से तैयार कर रही थीं उसका फंदा
जब वह मारा गया तो बताया गया कि वह एक कायर था, उसने जान दे दी।’ 

दो–
‘उसकी माँ थी, उसके भाई थे, उसके दोस्त थे, उसके सपने थे, उसका कार्ल सागान था
उसके भीतर छटपटाती कविताएँ थीं
उसके भीतर आकार लेती कुछ विज्ञान कथाएँ थीं
उसके भीतर उम्मीद थी, उसके भीतर गुस्सा था
उसके भीतर प्रतिरोध की कामना थी
लेकिन अपने अंतिम समय में वह बिल्कुल खाली था
वह कौन सा ड्रैक्युला था जिसने उसके भीतर
उतरकर सोख लिया था उसका पूरा संसार।’ 

तीन–
‘उसने अपने खुदकुशी के लिए सिर्फ खुद को
जिम्मेदार ठहराया किसी और को नहीं
अब उसके हत्यारे उसका दिया प्रमाण-पत्र दिखाकर
साबित कर रहे हैं कि उन्होंने उसे नहीं मारा
वह बस अपना जीवन जीना चाहता था
लेकिन इतने भर के लिए
उसे इतिहास की उन ताकतों से टकराना पड़ा
जो थकाकर मार डालने का हुनर जानती थी
वे किसी कृपा की तरह वज़ीफ़े बाँटती थीं
उनके पास बहुत सारा सब्र था, बहुत सारी करुणा
जिससे वह अपने भीतर की घृणा को छुपाए रखती थीं
उस दिन के इंतजार में
जब कोई रोहित वेमुला हार मानकर छोड़ देगा अपनी और उनकी दुनिया
वे नहीं चाहती थीं कोई उन्हें आईना दिखाए
कोई याद दिलाए उन्हें उनका ओछापन।’

चार–

‘हमें तो उसका शोक मनाने का हक भी नहीं
हम तो उसे ठीक से जानते तक नहीं
हमने कभी उसे देखा तक नहीं कि किस हाल में वह जीता था/किस तरह मरता था, क्यों लड़ता था
जब उसे इंतजार था हमारा तो हम दूर खड़े रहे
उसकी आत्मा से बेखबर या बेपरवाह
कोई नहीं जानता जिस बैनर से वह ताकत हासिल करता था
उसे मौत की रस्सी में बदलने से पहले
उसने कितनी रस्सियाँ थामने की कोशिश की होंगी
उस सर्द एहसास तक पहुँचने से पहले
जिसमें कोई उदासी नहीं होती
सिर्फ निचाट अकेलापन होता है
उसने कितनी बार शब्दों की आँच से ऊष्मा चाही होगी
जब उसे यह छोटी-सी डोर भी छिनती लगी
तो उसने यह रस्सी बनाई
और चला गया सब कुछ छोड़कर
जान देकर ही असल में उसने हासिल की वह जिंदगी
जिसका वह जीते-जी हकदार था और जो हक हमसे अदा न हुआ।’

पाँच–
‘लेकिन एक दिन यह कर्ज इतिहास को चुकाना होगा
एक दिन एकलव्य लौटेगा अपना रिसता हुआ अँगूठा माँगने
एक दिन रोम स्पार्टाकस का होगा
एक दिन शंबूक वाल्मीकि के सामने खड़ा होगा
पूछेगा आदिकवि से
किस अपराध में एक महाकाव्य पर 
उसके खून के छींटे डाले गए
अपने खून से जो स्याही तुमने बनाई है रोहित वेमुला
एक दिन वो भी काम आएगी।’
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