Saukh | Archana Verma
सौख | अर्चना वर्मा
झुनिया को चर्राया
इज्जत को सौख
बड़के मालिक की
उतरन का कुरता
देखने में चिक्कन
बरतने में फुसफुस
नाप में छोटा
कंधे पर
छाती पर
कसता
बड़ी जिद और जतन से
महंगू को पहनाया
मुश्किल है महंगू को
अब सांस लेना भी
झुनिया ने महंगू की
एक नहीं मानी
सांस बांस रखी रहे
इज्जत की ठानी
एड़ी से चोटी तक
अंगों पर ढांप ली
चादर पुरानी
जीते जी पगली ने
ओढ़ लिया कफन
कोठरी में घुस कर
कुंडी चढ़ा ली
देहरी के पार अब
झांकेगी न भूलकर
कोठरी के भीतर का
राजपाट देखेगी
मलकिन की तरह खुद
पियरांती जाएगी
जाने इस इज्जत को
ले के क्या पायेगी
इज्जत की नाप
बहुत छोटी है झुनिया
झरोखा न खिड़की
न दिन है न दुनिया
अपने कद को तो देख जरा
छत से भी ऊँचा है
कितना सिकोड़ेगी हाथ पांव अपने
गर्दन को पैरों तक
कैसे झुकाएगी, कब तक दोहराएगी
सीधी सतर पीठ को, मलकिन की
हारी थकी झुकी हुई दीठ को
उठ कुण्डी खोल दे
बाहर निकल आ