Thand Mein Gauraiyya | Kedarnath Singh

ठंड में गौरैया | केदारनाथ सिंह

ठंड पर लिखी जाने वाली इस कविता में 
यह गौरैया कहाँ से आ गई सबसे पहले?

भला वह क्यों नहीं 
जो चला जा रहा है सड़क पर 
अपने कोट का कॉलर ठीक करता हुआ? 
क्यों नहीं वह स्त्री 
जो तार पर जल्दी-जल्दी फैला रही है 
अपने स्वेटर? 
वह धुनिया क्यों नहीं 
जो चला जा रहा है गली में रुई के रेशों को
आवाज़ देता हुआ?

क्यों आख़िर क्यों 
कविता के शुरू में वही गौरैया 
छज्जे पर बैठी हुई 
जिसे बरसों पहले मैंने कहाँ देखा था 
याद नहीं

मौसम की पहली सिहरन! 
और देखता हूँ

अस्त-व्यस्त हो गया है सारा शहर 
और सिर्फ़ वह गौरैया है जो मेरी भाषा की स्मृति में 
वहाँ ठीक उसी तरह बैठी है 
और ख़ूब चहचहा रही है 
वह चहचहा रही है 
क्योंकि वह ठंड को जानती है 
जैसे जानती है वह 
अपनी गर्दन के पास भूरे-भूरे रोओं को 
वह जानती है कि वह जिस तरफ़ जाएगी 
उसी तरफ़ उड़कर चली जाएगी ठंड भी 
क्योंकि ठंड और गौरैया दोनों का 
बहुत कुछ है 
बहुत कुछ साझा और बेहद मूल्यवान 
जो इस समय लगा है 
दाँव पर...

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