Torch | Manglesh Dabral
टॉर्च | मंगलेश डबराल
मेरे बचपन के दिनों में
एक बार मेरे पिता एक सुन्दर-सी टॉर्च लाए
जिसके शीशे में खाँचे बने हुए थे
जैसे आजकल कारों की हेडलाइट में होते हैं।
हमारे इलाके में रोशनी की वह पहली मशीन थी
जिसकी शहतीर एक
चमत्कार की तरह रात को दो हिस्सों में बाँट देती थी
एक सुबह मेरे पड़ोस की एक दादी ने पिता से कहा
बेटा, इस मशीन से चूल्हा जलाने के लिए थोड़ी सी आग दे दो
पिता ने हँस कर कहा चाची इसमें आग नहीं होती सिर्फ़ उजाला होता है
इसे रात होने पर जलाते हैं
और इससे पहाड़ के ऊबड़-खाबड़ रास्ते साफ़ दिखाई देते हैं
दादी ने कहा उजाले में थोड़ा आग भी होती तो कितना अच्छा था
मुझे रात से ही सुबह का चूल्हा जलाने की फ़िक्र रहती है
पिता को कोई जवाब नहीं सुझा वे ख़ामोश रहे देर तक
इतने वर्ष बाद वह घटना टॉर्च की वह रोशनी
आग माँगती दादी और पिता की ख़ामोशी चली आती है
हमारे वक्त की विडम्बना में कविता की तरह।