Ullanghan | Rajesh Joshi

उल्लंघन - राजेश जोशी
 

उल्लंघन कभी जानबूझकर किये और कभी अनजाने में 
बंद दरवाज़े बचपन से ही मुझे पसंद नहीं रहे
एक पाँव हमेशा घर की देहरी से बाहर ही रहा मेरा 
व्याकरण के नियम जानना कभी मैंने ज़रूरी नहीं समझा 
और इसी कारण मुझे दीमक के कीड़ों को खाने की लत नहीं लगी 
और किसी व्यापारी के हाथ मैंने अपना पंख देकर उन्हें खरीदा नहीं 
बहुत मुश्किल से हासिल हुई थी आज़ादी 
और उससे भी मुश्किल था हर वक़्त उसकी हिफाज़त करना 
कोई न कोई बाज़ झपट्टा मारने, आँख गड़ाए बैठा ही रहता था 
किसी न किसी डगाल पर
कोई साँप रेंगता हुआ चुपचाप चला आता था घोंसले तक अंडे चुराने 
मैंने तो अपनी आँख ही तब खोली जब सविनय अवज्ञा के आह्वान पर 
सड़कों पर निकल आया देश 
उसके नारे ही मेरे कानों में बोले गए पहले शब्द थे 
मुझे नहीं पता मैं कितनी चीज़ों को उलांघ गया 
उलांघी गई चीज़ों की बाढ़ रुक जाती है ऐसा माना जाता था  
कई बार लगता है कि उल्लंघन की प्रक्रिया 
उलटबाँसी बनकर रह गई है हमारे मुल्क में
हमने सोचा था कि लाँघ आए हैं हम 
बहुत सारी मूर्खताओं को 
अब वो कभी सिर नहीं उठाएंगी  
लेकिन एक दिन वो पहाड़ सी खड़ी नज़र आईं 
और हम उनकी तलहटी में खड़े बौने थे 
लेकिन ये न समझना कि मैं हताश होकर बैठ जाऊँगा 
उल्लंघन की आदत तो मेरी रग-रग में मौजूद है 
बंदर से आदमी बनने की प्रक्रिया के बीच इसे 
अपने पूर्वजों से पाया है मैंने 
मैं एक कवि हूँ और कविता तो हमेशा से ही 
एक हुक़्म-उदूली है 
हुक़ूमत के हर फ़रमान को ठेंगा दिखाती 
कविता उल्लंघन की एक सतत प्रक्रिया है 
व्याकरण के तमाम नियमों और भाषा की तमाम सीमाओं का उल्लंघन करती 
ये अपनेआप ही पहुँच जाती है वहाँ 
जहाँ पहुँचने के बारे में कभी सोचा भी नहीं था मैंने 
एक कवि ने कहा था कभी कि 
स्वाधीनता घटना नहीं, प्रक्रिया है 
उसे पाना होता है बार-बार, लगातार 
तभी से न जाने कितने नियमों की 
अविनय-सविनय अवज्ञा करता पहुँचा हूँ मैं यहाँ तक।
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