Anubhav | Nilesh Raghuvanshi
अनुभव | नीलेश रघुवंशी
तो चलूँ मैं अनुभवों की पोटली पीठ पर लादकर बनने लेखक
लेकिन मैंने कभी कोई युद्ध नहीं देखा
खदेड़ा नहीं गया कभी मुझे अपनी जगह से
नहीं थर्राया घर कभी झटकों से भूकंप के
पानी आया जीवन में घड़ा और बारिश बनकर
विपदा बनकर कभी नहीं आई बारिश
दंगों में नहीं खोया कुछ भी न खुद को न अपनों को
किसी के काम न आया कैसा हलका जीवन है मेरा
तिस पर
मुझे कागज़ की पुड़िया बाँधना नहीं आता
लाख कोशिश करूँ सावधानी बरतूँ खुल ही जाती है पुड़िया
पुड़िया चाहे सुपारी की हो या हो जलेबी की
नहीं बँधती तो नहीं बँधती मुझसे कागज़ की पुड़िया नहीं सधती
अगर मैं लकड़हारा होती तो कितने करीब होती जंगल के
होती मछुआरा तो समुद्र मेरे आलिंगन में होता
अगर अभिनय आता होता मुझे तो एक जीवन में जीती कितने जीवन
जीवन में मलाल न होता राजकुमारी होती तो कैसी होती
और तो और अगले ही दिन लकड़हारिन बनकर घर-घर लकड़ी पहुँचाती
अगर मैं जादूगर होती तो
पल-भर में गायब कर देती सिंहासन पर विराजे महाराजा दुःख को
सचमुच कंचों की तरह चमका देती हर एक का जीवन
सोचती बहुत हूँ लेकिन कर कुछ नहीं पाती हूँ
मेरा जीवन न इस पार का है न उस पार का
तो कैसे निकलूं मैं
अनुभवों की पोटली पीठ पर लादकर बनने लेखक ?