Apne Purkhon Ke Liye | Vishwanath Prasad Tiwari

अपने पुरखों के लिए | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

इसी मिट्टी में
मिली हैं उनकी अस्थियाँ
अँधेरी रातों में
जो करते रहते थे भोर का आवाहन
बेड़ियों में जकड़े हुए
जो गुनगुनाते रहते थे आज़ादी के तराने
माचिस की तीली थे वे
चले गए एक लौ जलाकर
थोड़ी सी आग
जो चुराकर लाये थे वे जन्नत से
हिमालय की सारी बर्फ
और समुद्र का सारा पानी
नहीं बुझा पा रहे हैं उसे
लड़ते रहे, लड़ते रहे, लड़ते रहे
वे मछुआरे
जर्जर नौका की तरह
समय की धार में डूब गए
कैसे उन्होंने अपने पैरों को बना लिया हाथ
और एक दिन परचम की तरह लहरा दिए उसे
कैसे वे अकेले पड़ गए
अपने ही बनाए सिंहासनों, संगीनों और बूटों के आगे
और कैसे बह गए एक पतझर में गुमनाम
जंगल की खामोशी तोड़ने के लिए
उन्होंने ईजाद की थीं ध्वनियाँ
और आँधी-तूफान में भी ज़िंदा रखने के लिए
धरती में बोए थे शब्द
अपनी खुरदरी भाग्यरेखाओं वाले
काले हाथों से
उन्होंने मिट॒टी में बसंत
और बसंत में फूल और फूल में भरे थे रंग
धधकाई थीं भट्ठियाँ
चट्टानों को बनाया था अन्नदा
किसी राजा का नहीं
इतिहास है यह
शरीर में धड़कते हुए खून का
मेरे बच्चों
युद्ध थे वे
हमें छोड़ गए एक युद्ध में ।

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