Daud | Kumar Ambuj
दौड़ -कुमार अम्बुज
मुझे नहीं पता मैं कब से एक दौड़ में शामिल हूँ
विशाल अंतहीन भीड़ है जिसके साथ दौड़ रहा हूँ मैं
गलियों में, सड़कों पर, घरों की छतों पर, तहखानों में
तनी हुई रस्सी पर सब जगह दौड़ रहा हूँ मैं
मेरे साथ दौड़ रही है एक भीड़
जहाँ कोई भी कम नहीं करना चाहता अपनी रफ्तार
मुझे ठीक-ठीक नहीं मालुम मैं भीड़ के साथ दौड़ रहा हूँ
या भीड़ मेरे साथ
अकेला पीछे छूट जाने के भय से दौड़ रहा हूँ
या आगे निकल जाने के उन्माद में
मुझे नहीं पता मैं अपने पड़ौसी को परास्त करना चाहता हूँ
या बचपन के किसी मित्र को
या आगे निकल जाना चाहता हूँ किसी अनजान आदमी से
मैं दौड़ रहा हूँ बिना यह जाने कि कौन है मेरा प्रतिद्वंद्वी
जब शामिल हुआ था दौड़ में
मुझे दिखाई देती थीं बहुत सी चीज़ें
खेत, पहाड़, जंगल
दिखाई देते थे पुल, नदियाँ, खिलौने और बचपन के खेल
दिखते थे मित्रों, रिश्तेदारों और परिचितों के चेहरे
सुनाई देती थीं पक्षियों की आवाज़ें
समुद्र का शोर और हवा का संगीत
अब नहीं दिखाई देता कुछ भी
न बारिश न धुंध
न खुशी न बेचैनी
न उम्मीद न संताप
न किताबें न सितार
दिखाई देते हैं सब तरफ एक जैसे लहुलुहान पाँव
और सुनाई देती हैं सिर्फ उनकी थकी और भारी
और लगभग गिरने से अपने को सँभालती हुईं
धप धप्प धप्प् सी आवाजें
तलुए सूज चुके हैं सूख रहा है मेरा गला
जवाब दे चुकी हैं पिंडलियाँ
भूल चुका हूँ मैं रास्ते
मुझे नहीं मालूम कहाँ के लिए दौड़ रहा हूँ और कहाँ पहुँचूँगा
भीड़ में गुम चुके हैं मेरे बच्चे और तमाम प्यारे जन
कोई नहीं दिखता दूर-दूर तक जो मुझे पुकार सके
या जिसे पुकार सकूँ मैं कह सकूँ कि बस, बहुत हुआ अब
हद यह है कि मैं बिलकुल नहीं दौड़ना चाहता
किसी धावक की तरह पार नहीं करना चाहता यह छोटा सा जीवन
नहीं लेना चाहता हाँफती हुईं साँसें
हद यही है कि फिर भी मैं खुद को दौड़ता हुआ पाता हूँ
थकान से लथपथ और बदहवास