Deewana Dil | Nasira Sharma

दीवाना दिल - नासिरा शर्मा

अक्सर सोचती हूँ मैं
जब भी मैंने चलना चाहा तुम्हें लेकर अपने संग
नहीं समझ पाए तुम वह राहें
तुम्हारे खेतों से उगी गेंहूँ की बालियों से
फूटे दानों को बोना चाहती थी अपने आँगन में
ताकि बना सकूँ रिश्ता ज़मीन से ज़मीन का
उसकी उगी कोंपलों के रस को पी सकूँ और
महसूस कर सकूँ तुमसे गहरे जुड़ाव को

भेजने को कहा था तुमसे मैनें
भेज दो कुछ ख़ुशबूदार पौधे मुझे
जिसे बोती मैं अपनी क्यारियों में
और सूँघती तुम्हारे सीने की गंध को
माना तुम भेजते हो फूल किसी फ्लावर शाप से जो सूख जाते हैं दो-चार दिन में
बिना गंध फैलाए चले जाते हैं कूड़ेदान में
जिनसे नहीं बन पाता वह मेरा रिश्ता जो
मैं चाहती हूँ तुम से रूह की गहराइयों से

जानती हूँ मैं यह सब मिल जाता है मेरे शहर में
गल्ले की दुकान से गेहूँ के दाने
ऑनलाइन नर्सरी से फूलों के बीज और पौधे!
लेकिन तुम्हारा यह बताना कर देता है
मेरे अहसास की मंज़िल से मुझे कोसों दूर
जहाँ बसेरा लेना चाहता है मेरा यह दीवाना दिल!

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