Ek Aur Akaal | Kedarnath Singh
एक और अकाल | केदारनाथ सिंह
सभाकक्ष में
जगह नहीं थी
तो मैंने कहा कोई बात नहीं
सड़क तो है
चल तो सकता हूँ
सो, मैंने चलना शुरू किया
चलते-चलते एक दिन
अचानक मैंने पाया
मेरे पैरों के नीचे
अब नहीं है सड़क
तो मैंने कहा चलो ठीक है
न सही सड़क
मेरे शहर में एक गाती-गुनगुनाती हुई
नदी तो है
फिर एक दिन
बहुत दिनों बाद
मैंने सुबह-सुबह
जब खिड़की खोली
तो देखा-
तट उसी तरह पड़े हैं
और नदी ग़ायब!
यह मेरे लिए
अनभ्र बज्रपात था
पर मैंने ख़ुद को समझाया
यार, दुखी क्यों होते हो
इतने कट गए
बाक़ी भी कट ही जाएँगे दिन
क्योंकि शहर में लोग तो हैं।
फिर एक दिन
जब किसी तरह नहीं कटा दिन
तो मैं निकल पड़ा
लोगों की तलाश में
मैं एक-एक से मिला
मैंने एक-एक से बात की
मुझे आश्चर्य हुआ
लोगों को तो लोग
जानते तक नहीं थे!