Ghar Ki Ore | Naresh Mehta

घर की ओर | नरेश मेहता

वह-
जिसकी पीठ हमारी ओर है
अपने घर की ओर मुँह किये जा रहा है
जाने दो उसे
अपने घर।
हमारी ओर उसकी पीठ-
ठीक ही तो है
मुँह यदि होता
तो भी, हमारे लिए वह
सिवाय एक अनाम व्यक्ति के
और हो ही क्या सकता था?
पर अपने घर-परिवार के लिए तो
वह केवल मुँह नहीं
एक सम्भावनाओं वाली
ऐसी संज्ञा
जिसके साथ सम्बन्धों का इतिहास होगा
और होगी प्रतीक्षा करती
राग की
एक सम्पूर्ण भागवत-कथा।
तभी तो
वह-
हाथ में तेल की शीशी,
कन्धे की चादर में
बच्चों के लिए चुरमुरा
गुड़ या मिठाई
या अपनी मुनिया के लिए होगा
कोई खिलौना
और निश्चित ही होगी
बच्चों की माँ के लिए भी...
(जाने दो
उसकी इस व्यक्तिगत गोपनीयता की गाँठ
हमें नही खोलनी चाहिए।)
वह जिस उत्सुकता और तेज़ी से
चल रहा है
तुम्हें नहीं लगता कि
एक दिन में
वह पूरी पृथ्वी नाप सकता है
सूर्य की तरह?
बशर्ते उस सिरे पर
सूर्य की ही तरह
उसका भी घर हो
बच्चे हों और
इसलिए घर जाते हुए व्यक्ति में
और सूर्य में
काफी कुछ समानता है।
पुकारो नहीं-
उसे जाने दो
हमारी ओर पीठ होगी
तभी न घर की ओर उसका मुँह होगा!
सूर्य को पुकारा नहीं जाता
उसे जाने दिया जाता है।

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