Jab Dost Ke Pita Marey | Kumar Ambuj

जब दोस्त के पिता मरे | कुमार अम्बुज

बारिश हो रही थी जब दोस्त के पिता मरे
भीगते हुए निकली शवयात्रा
बारिश की वजह से नहीं आए ज़्यादा लोग
जो कंधा दे रहे थे वे एक तरफ़ से भीग रहे थे कम
सबसे पहले बारिश होती थी दोस्त के पिता के शव पर
दोस्त चल रहा था आगे-आगे
निरीह बेहोशी से भरी डगमगाती हुई थी उसकी चाल
शमशान में पहुँचकर लगा बारिश में बुझ जाएगी आग
कई पुराने लोग थे वहाँ जो कह रहे थे
नहीं बुझेगी चिता
हम सबने देखा बारिश में दहक रही थी चिता
लौटने में तितर-बितर
हुए लोग
दोस्त के कंधे पर हाथ रखे हुए लौटा मैं
मुझे नहीं समझ आया क्या कहूँ  मैं उससे
मुझे तो यह नहीं पता कि कैसा लगता है जब मरते हैं पिता
अब जब मर गए दोस्त के पिता तो क्या कहूँ उससे
कि बारिश में हिचकी लेता हुआ उसका गीला शरीर न काँपे
कौन-सा एक शब्द कहूँ उससे सांत्वना का आखिर
यही सोचता रहा देर तक
रात को जब घर लौटकर आया
बारिश उसी तरह हो रही थी लगातार।

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