Jagah | Vishwanath Prasad Tiwari

जगह | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

खड़े-खड़े मेरे पाँव दुखने लगे थे
थोड़ी-सी जगह चाहता था बैठने के लिए
कलि को मिल गया था
राजा परीक्षेत का मुकुट
मैं बिलबिलाता रहा कोने-अँतरे
जगह, हाय जगह
सभी बेदखल थे अपनी अपनी जगह से
रेल में मुसाफिरों के लिए
गुरुकुलों में वटुकों के लिए
शहर में पशुओं
आकाश में पक्षियों
सागर में जलचरों
पृथ्वी पर वनस्पतियों के लिए
नहीं थी जगह
सुई की नोक भर जगह के लिए
हुआ था महासमर
हासिल हुआ महाप्रस्थान
नहीं थी कोई भी चीज़ अपनी जगह
जूतों पर जड़े थे हीरे
गले में माला नोटों की
पुष्पहार में तक्षक,

न धर्म में करुणा
न मज़हब में ईमान
न जंगल में आदिवासी
न आदमी में इन्सान

राजनीति में नीति
और नीति में प्रेम
और प्रेम में स्वाधीनता के लिए
नहीं थी जगह
नारद के पीछे दौड़ा
विपुल ब्रह्मांड में
जहाँ जहाँ सुवर्ण था
वहाँ-वहाँ कलि
और जहाँ -जहाँ कलि
वहाँ-वहाँ
नहीं थी जगह।

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