Jagat Ke Kuchle Hue Path | Harishankar Parsai
जगत के कुचले हुए पथ पर भला कैसे चलूं मैं? | हरिशंकर परसाई
किसी के निर्देश पर चलना नहीं स्वीकार मुझको
नहीं है पद चिह्न का आधार भी दरकार मुझको
ले निराला मार्ग उस पर सींच जल कांटे उगाता
और उनको रौंदता हर कदम मैं आगे बढ़ाता
शूल से है प्यार मुझको, फूल पर कैसे चलूं मैं?
बांध बाती में हृदय की आग चुप जलता रहे जो
और तम से हारकर चुपचाप सिर धुनता रहे जो
जगत को उस दीप का सीमित निबल जीवन सुहाता
यह धधकता रूप मेरा विश्व में भय ही जगाता
प्रलय की ज्वाला लिए हूं, दीप बन कैसे जलूं मैं?
जग दिखाता है मुझे रे राह मंदिर और मठ की
एक प्रतिमा में जहां विश्वास की हर सांस अटकी
चाहता हूँ भावना की भेंट मैं कर दूं अभी तो
सोच लूँ पाषान में भी प्राण जागेंगे कभी तो
पर स्वयं भगवान हूँ, इस सत्य को कैसे छलूं मैं?