Khali Ghar | Chandrakanta

खाली घर | चंद्रकांता 

सब कुछ वही था
सांगोपांग
घर ,कमरे,कमरे की नक्काशीदार छत
नदी पर मल्लाहों की इसरार भरी पुकार 
 सडक पर हंगामों के बीच
 दौड़ते- भागते बेतरतीब हुजूम के हुजूम !
 और आवाज़ों के कोलाज में खड़ा खाली घर!
बोधिसत्व सा,निरुद्वेग,निर्पेक्ष समय
सुन रहा था उसका बेआवाज़
झुनझुने की तरह बजना!
देख रहा था
गोद में चिपटाए दादू के झाड़फ़ानूस 
पापा की कद्दावार चिथड़ा तस्वीर,
इधर उल्टे -सीधे खिलौनों के छितरे ढेर!
उधर ताखे पर धूल-मैल से बदरंग हुई
बाँह भर चूड़ियाँ 
काल के गह्वर में गुम हुई अल्हड़  प्रेमिका की!
अनन्त दूरियों और अगम्य विस्तारों में
काँप रहा है बियाबान !
वक्त़ के मलबे में दबा
 इतिहास का करुण वर्तमान!
कैसा अथक इंतज़ार?
 बाहर के कानफाडू शोर में ढूँढ रहा है
ग़ायब होती भीतर की
शब्दातीत मौलिक ध्वनियाँ !

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