माँ - दामोदर खड़से 

नदी सदियों से बह रही है 
इसका संगीत पीढ़ियों को 
लुभा रहा है 
आकांक्षाओं और आस्थाओं के संगम पर वह 
धीमी हो जाती है...
उफनती है आकांक्षाओं की पुकार से 
पीढ़ियाँ, बहाती रही हैं 
इच्छा-दीप और निर्माल्य 
बिना जाने कि 
थोड़ी-सी आँच भी 
नदी को तड़पा सकती है
पर नदी ने कभी प्रतिकार नहीं किया...
हर फूल, हवन, राख को 
पहुँचाया है अखंड आराध्य तक 
कभी नहीं करती वह शिकायत 
भीड़ भरे किनारों से 
चाँद छू लेने की 
हर हाथ की चाहत को 
माँ जानती है!

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