Mit Mit Kar Main Seekh Raha Hun | Kedarnath Agarwal

मिट मिट कर मैं सीख रहा हूँ | केदारनाथ अग्रवाल

दूर कटा कवि
मैं जनता का,
कच-कच करता
कचर रहा हूँ अपनी माटी;
मिट-मिट कर
मैं सीख रहा हूँ
प्रतिपल जीने की परिपाटी
कानूनी करतब से मारा
जितना जीता उतना हारा
न्याय-नेह सब समय खा गया
भीतर बाहर धुआँ छा गया
धन भी पैदा नहीं कर सका
पेट-खलीसा नहीं भर सका
लूट खसोट जहाँ होती है
मेरी ताव वहाँ खोटी है
मिली कचहरी इज़्ज़त थोपी
पहना चोंगा उतरी टोपी
लिये हृदय में कविता थाती
मैं ताने हूँ अपनी छाती।

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