Nadi Ka Smarak | Kedarnath Singh
नदी का स्मारक | केदारनाथ सिंह
अब वह सूखी नदी का
एक सूखा स्मारक है।
काठ का एक जर्जर पुराना ढाँचा
जिसे अब भी वहाँ लोग
कहते हैं 'नाव'
जानता हूँ लोगों पर उसके
ढेरों उपकार हैं
पर जानता यह भी हूँ कि उस ढाँचे ने
बरसों से पड़े-पड़े
खो दी है अपनी ज़रूरत
इसलिए सोचा
अबकी जाऊँगा तो कहूँगा उनसे-
भाई लोगों,
काहे का मोह
आख़िर काठ का पुराना ढाँचा ही तो है
सामने पड़ा एक ईंधन का ढेर-
जिसका इतना टोटा है!
वैसे भी दुनिया
नाव से बहुत आगे निकल गई है
इसलिए चीर-फाड़कर
उसे झोंक दो चूल्हे में
यदि नहीं
तो फिर एक तखत या स्टूल ही बना डालो उसका
इस तरह मृत नाव को
मिल जाएगा फिर से एक नया जीवन
पर पूरे जतन से
उन शब्दों को सहेजकर
जब पहुँचा उनके पास
उन आँखों के आगे भूल गया वह सब
जो गया था सोचकर
'दुनिया नाव से आगे निकल गई है'-
यह कहने का साहस
हो गया तार-तार
वे आँखें
इस तरह खली थीं
मानो कहती हों-
काठ का एक जर्जर ढाँचा ही सही
पर रहने दो 'नाव' को
अगर वह वहाँ है तो एक न एक दिन
लौट आएगी नदी
जानता हूँ
वह लौटकर नहीं आएगी
आएगी तो वह एक और नदी होगी
जो मुड़ जाएगी कहीं और
सो, चलने से पहले
मैंने उस जर्जर ढाँचे को
सिर झुकाया
और जैसे कोई यात्री पार उतरकर
जाता है घर
चुपचाप लौट आया।