Padhna Mere Pair | Jyoti Pandey

पढ़ना मेरे पैर | ज्योति पांडेय

मैं गई
जबकि मुझे नहीं जाना था।
बार-बार, कई बार गई।
कई एक मुहानों तक
न चाहते हुए भी…
मेरे पैर मुझसे असहमत हैं,
नाराज़ भी।
कल्पनाओं की इतनी यात्राएँ की हैं
कि अगर कभी तुम देखो
तो पाओगे कि कितने थके हैं ये पाँव!
जंगल की मिट्टी, पहाड़ों की घास और समंदर की रेत से भरी हैं बिवाइयाँ।
नाख़ूनों पर पुत गया है-
हरा-नीला मटमैला सब रंग;
कोई भी नेलकलर लगाऊँ
दो दिन से ज़्यादा टिकता नहीं।
तुमने कभी देखे हैं क्या
सोच के ठिकाने?
मेरे पाँव पूछते हैं मुझसे
कब थमेगी तुम्हारी दौड़?
मैं बता नहीं पाती, क्योंकि, जानती नहीं!
तुम कभी मिलना इनसे
एकांत में-
जब मैं भी न होऊँ।
ये सुनाएँगे तुम्हें
कई वे क़िस्से और बातें
जो शायद अब हम तुम कभी बैठकर न कर पाएँ!
जब मैं न रहूँ
तुम पढ़ना मेरे पैर,
वहाँ मैं लिख जाऊँगी
सारी वर्जनाओं की स्वीकृति;
ठीक उसी क्षण
मेरे पैर भी मेरे भार से मुक्त होंगे!

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