Phoota Prabhat | Bharat Bhushan Aggarwal

फूटा प्रभात | भारतभूषण अग्रवाल

फूटा प्रभात, फूटा विहान
वह चल रश्मि के प्राण, विहग के गान, मधुर निर्भर के स्वर

झर-झर, झर-झर।
प्राची का अरुणाभ क्षितिज,

मानो अंबर की सरसी में
फूला कोई रक्तिम गुलाब, रक्तिम सरसिज।

धीरे-धीरे,
लो, फैल चली आलोक रेख

घुल गया तिमिर, बह गई निशा;
चहुँ ओर देख,

धुल रही विभा, विमलाभ कांति।
अब दिशा-दिशा

सस्मित,
विस्मित,

खुल गए द्वार, हँस रही उषा।
खुल गए द्वार, दृग खुले कंठ,

खुल गए मुकुल
शतदल के शीतल कोषों से निकला मधुकर गुँजार लिए

खुल गए बंध, छवि के बंधन।
जागो जगती के सुप्त बाल!

पलकों की पंखुरियाँ खोलो, खोलो मधुकर के अलस बंध
दृग् भर

समेट तो लो यह श्री, यह कांति
बही आती दिगंत से यह छवि की सरिता अमंद

झर-झर, झर-झर।
फूटा प्रभात, फूटा विहान,

छूटे दिनकर के शर ज्यों छवि के वहि-बाण
(केशर-फूलों के प्रखर बाण)

आलोकित जिन से धरा।
प्रस्फुटित पुष्पों के प्रज्वलित दीप,

लो-भरे सीप।
फूटी किरणें ज्यों वहि-बाण, ज्यों ज्योति-शल्य,

तरु-वन में जिनसे लगी आग।
लहरों के गीले गाल, चमकते ज्यों प्रवाल,

अनुराग-लाल।


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