Prem Ke Prasthan | Anupam Singh

प्रेम के प्रस्थान | अनुपम सिंह 

सुनो,
एक दिन बन्द कमरे से निकलकर हम दोनों
पहाड़ों की ओर चलेंगे
या फिर नदियों की ओर
नदी के किनारे,
जहाँ सरपतों के सफ़ेद फूल खिले हैं।
या पहाड़ पर
जहाँ सफ़ेद बर्फ़ उज्ज्वल हँसी-सी जमी है
दरारों में और शिखरों पर
काढेंगे एक दुसरे की पीठ पर रात का गाढ़ा फूल
इस बार मैं नहीं
तुम मेरे बाजुओं पर रखना अपना सिर
मैं तुम्हें दूँगी उत्तेजित करने वाला चुम्बन
धीरे-धीरे पहाड़ की बर्फ़ पिघलाकर जब लौट रहे होंगे हम
तब रेगिस्तानों तक पहुँच चुका होगा पानी
सुनो,
इस बार की अमावस्या में हम
एक दूसरे की आँखों में देर तक देखेंगे अपना चेहरा
और इस कमरे से निकलकर खेतों की ओर चलेंगे
हमें कोई नहीं देखेगा अंधेरी रात में
हाथ पकड़कर दूर तक चलते हुए

मैं धान के फूलों के बीच तुम्हें चूमँगी
झिर-झिर बरसते पानी के साथ
फैल जाएगा हमारा तत्त्व खेतों में
मुझे मेरे भीतर
एक आदिम स्त्री की गंध आती है।
और मैं तुम्हें
एक आदिम पुरुष की तरह पाना चाहती हूँ
फिर अगली के अगली बार
हम पठारों की तरफ चलेंगे
छोटी-छोटी गठीली वनस्पतियों के बीच गाएँगे कोई पुराना गीत
जिसे मेरी और तुम्हारी दादी गाती थीं
खोजेंगे नष्ट होते बीजों को चींटों के बिलों में
मैं भी गोड़ना चाहती हूँ
वहाँ की सख्त मिट्टी
मैं भी चाहती हूँ लगाना
पठारी धरती पर एक पेड़
सुनो,
तुम इस बर लौटो
तो हम अपने प्रेम के तरीक़े बदल देंगे।

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