Prem | Krishna Mohan Jha
प्रेम | कृष्णमोहन झा
एक माहिर चीते की तरह
अपने पंजों को दबा कर आता है प्रेम
और जबड़े में उठाकर तुम्हें ले जाता है
अगले दिन
या अगले के अगले दिन
पंजों के निशान देखती है दुनिया
लेकिन उसे
तुम्हारे टपकते रक्त का पता नहीं चलता
तुम्हें भी कहाँ पता चलता है
कि जिस जबड़े में तुम फँस गए हो अचानक
उसका नाम मृत्यु है
या है प्रेम