Puri ka Samudra | Gyanendrapati
पुरी का समुद्र | ज्ञानेन्द्रपति
आँखों में पुरी का समुद्र लिये जब लौटोगी
विस्मय -विस्फारित अपनी बड़री आँखों में
तरंग-विकल वह संयम-असमर्थ समुद्र
पछाड़ खाता, पुकारता, लीलने को आता
उद्द्वेलित, उद्दाम, हहाता
दष्टि-छोर तक फेला, फूला, फेनिल
टूट-टूट बिखर, तुम्हारे पैरों तले बिछ जाता
तुम्हें छोड़ जाता हुआ कुछ-कुछ गीला, कुछ-कुछ भीत
तुम्हारे कन्धों पर रख हाथ, तुम्हारी आँखों में झाँकता
मैं जानूँगा, अरे! यह तो मेरे मन का प्रतिबिम्ब है।