Raat ka Ped | Rahi Masoom Raza
रात का पेड़ | राही मासूम रज़ा
रास्ते
चाँदनी ओढ़ कर सो गए
झील पर नींद की सिलवटें पड़ गईं
आहटें
पहले पीली पड़ीं
और फिर
एक-एक करके सब झड़ गईं
रात का पेड़
दस्ते-दुआ बन गया
अपनी ही ज़ात से
अपने ही आपके बीच का फ़ासिला बन गया
दर्द का रास्ता बन गया
एक बूढ़ा
पुर-असरार दरवेश
जो सैकड़ों हाथ अपने उठाए हुए
आसमाँ की तरफ़
देखते-देखते थक गया
आसमाँ चुप रहा
रात के पेड़ के हाथ दुखने लगे
फिर वही पेड़
वहशत का इक सिलसिला बन गया
क़िस्सा-ए-अहले-दिल
क़िस्सा-ए-साहिबाने-वफ़ा बन गया
ज़ख़्मों की कोंपलें आ गईं
और उस पेड़ ने झुक के मुझसे कहा :
“सुबह के शौक़ में जागने से बड़ी कोई नेमत नहीं
अपनी आँखों को तुम
सुबह के शौक़ में
जागने और जगाने की तालीम दो”