Rachna Ki Adhi Raat | Kedarnath Singh
रचना की आधीरात | केदारनाथ सिंह
अन्धकार! अन्धकार! अन्धकार
आती है
कानों में
फिर भी कुछ आवाज़ें
दूर बहुत दूर
कहीं
आहत सन्नाटे में
रह- रहकर
ईटों पर
ईटों के रखने की
फलों के पकने की
ख़बरों के छपने की
सोए शहतूतों पर
रेशम के कीड़ों के
जगने की
बुनने की.
और मुझे लगता है
जुड़ा हुआ इन सारी
नींदहीन ध्वनियों से
खोए इतिहासों के
अनगिनत ध्रुवांतों पर
मैं भी रचना- रत हूँ
झुका हुआ घंटों से
इस कोरे काग़ज़ की भट्ठी पर
लगातार
अन्धकार! अन्धकार ! अन्धकार !