Suitcase : New York Se Ghar Tak | Vishwanath Prasad Tiwari
सूटकेस : न्यूयर्क से घर तक | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
"इस अनजान देश में
अकेले छोड़ रहे मुझे"
मेरे सूटकेस ने बेबस निगाहों से देखा
जैसे परकटा पक्षी
देखता हो गरुड़ को
उसकी भरी आँखों में क्या था
एक अपाहिज परिजन की कराह
या किसी डुबते दोस्त की पुकार
कि उठा लिया उसे
जिसकी मुलायम पसलियां टूट गई थीं
हवाई यात्रा के मालामाल बक्सों बीच
कमरे से नीचे लाया
जमा कर दिया उसे होटल के लॉकरूम में
इस बुरी नीयत के साथ
कि छोड़ दूँगा यहीं
यह अर्थहीन अस्थिपंजर
मगर चलते वक्त हवाई अड्डे
फिर उठा लिया उसे
दो डॉलर चुकाकर
जैसे कक्षा दो के अपने पुराने सहपाठी को
जिसकी कीमत अब दो कौड़ी भी नहीं रह गई थी
फिर नीयत खोट हुई
हवाई अड्डे पर उसे छोड़ देने की
मगर उसकी डबडबाई आकुल आँखें
उस पिता जैसी लगीं
जो नब्बे पार की उम्र में
अकेले पड़े हों गाँव में
मुझे लगा
अभी खतरे के साइरन बजेंगे
घेर लेंगे इसे सैनिक और जासूस
रेशा-रेशा उधेड देंगे इसका
जो एक कलाकृति था अपनी जवानी में
उतरा जब दिल्ली हवाई अडडे
उसकी पीठ और पेट
चिपक गए थे एक में
बदलू मुसहर की तरह
जो भूख से भरा या मलेरिया से
इस पर बरसों बहस चली थी
मीडिया और संसद में
दिल्ली में उससे छुड़ा लेना चाहता था पिंड
जो चार बार विदेश यात्राओं में सहयात्री रहा
मगर आखिर वह आ ही गया मेरे साथ गोरखपुर
उस गाय की तरह
जो गाहक के हाथ से पगहा झटककर
लौट आई हो अपने पुराने खूटे पर
और अब, वह मेरे पुराने सामानों बीच
विजयी-सा मुस्करा रहा
चुनौती देता और पूछता मुझसे
"क्या आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी है
उन्हें पीछे छोड़ देना
जिनके पास भाषा नहीं है?"