Swapn Mein Pita | Ghulam Mohammad Sheikh

स्वप्न में पिता | ग़ुलाम मोहम्मद शेख़

बापू, कल तुम फिर से दिखे
घर से हज़ारों योजन दूर यहाँ बाल्टिक के किनारे

मैं लेटा हूँ यहीं,
खाट के पास आकर खड़े आप इस अंजान भूमि पर

भाइयों में जब सुलह करवाई
तब पहना था वही थिगलीदार, मुसा हुआ कोट,

दादा गए तब भी शायद आप इसी तरह खड़े होंगे
अकेले दादा का झुर्रीदार हाथ पकड़।

आप काठियावाड़ छोड़कर कब से यहाँ क्रीमिया के
शरणार्थियों के बीच आ बसे?

भोगावो छोड़, भादर लाँघ
रोमन क़िले की कगार चढ़

डाकिए का थैला कंधे पर लटकाए आप यहाँ तक चले आए—
पीछे तो देखो दौड़ आया है क़ब्रिस्तान!

(हर क़ब्रिस्तान में मुझे आपकी ही क़ब्र क्यो दिखाई पड़ती है?)
और ये पीछे-पीछे दौड़े आ रहे हैं भाई

(क्या झगड़ा अभी निपटा नहीं?)
पीछे लकड़ी के सहारे

खड़े क्षितिज के चरागाह में
मोतियाबिंद के बीच मेरी खाट ढूँढ़ती माँ।

माँ, मुझे भी नहीं दिखता
अब तक हाथ में था

वह बचपन यहीं कहीं
खाट के नीचे टूटकर बिखर गया है।


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