Uth Jaag Musafir | Vanshidhar Shukla
उठ जाग मुसाफ़िर | वंशीधर शुक्ल
उठ जाग मुसाफ़िर! भोर भई,
अब रैन कहाँ जो सोवत है।
जो सोवत है सो खोवत है,
जो जागत है सो पावत है।
उठ जाग मुसाफ़िर! भोर भई,
अब रैन कहाँ जो सोवत है।
टुक नींद से अँखियाँ खोल ज़रा
पल अपने प्रभु से ध्यान लगा,
यह प्रीति करन की रीति नहीं
जग जागत है, तू सोवत है।
तू जाग जगत की देख उड़न,
जग जागा तेरे बंद नयन,
यह जन जाग्रति की बेला है,
तू नींद की गठरी ढोवत है।
लड़ना वीरों का पेशा है,
इसमें कुछ भी न अंदेशा है;
तू किस ग़फ़लत में पड़ा-पड़ा
आलस में जीवन खोवत है।
है आज़ादी ही लक्ष्य तेरा,
उसमें अब देर लगा न ज़रा;
जब सारी दुनिया जाग उठी
तू सिर खुजलावत रोवत है।
उठ जाग मुसाफ़िर! भोर भई
अब रैन कहाँ जो सोवत है।