Yatra | Naresh Saxena

यात्रा | नरेश सक्सेना 

नदी के स्रोत पर मछलियाँ नहीं होतीं 
शंख–सीपी मूँगा-मोती कुछ नहीं होता नदी के स्रोत पर 
गंध तक नहीं होती 
सिर्फ़ होती है एक ताकत खींचती हुई नीचे 
जो शिलाओं पर छलाँगें लगाने पर विवश करती है
सब कुछ देती है यात्रा 
लेकिन जो देते हैं धूप-दीप और 
जय-जयकार देते हैं 
वही मैल और कालिख से भर देते हैं
धुआँ-धुआँ होती है नदी 
बादल-बादल होती है नदी 
लौटती है फिर से उन्हीं निर्मल ऊँचाइयों की ओर
लेकिन इस यात्रा में कोई भी नहीं देता साथ 
वे शिलाएँ भी नहीं 
जो साथ चलने की कोशिश में रेत हो गई थीं
वापसी की यात्रा में 
नदी होती है 
रंगहीन 
गंधहीन 
स्वादहीन।
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